Wednesday 18 July 2018

बाजारवाद की नयी सृजनशीलता

भारत अपनी सृजन करने की कला से प्रसिद्ध है। यहाँ कहानी, कविताएँ, ग़ज़ल, नाटक, लघु कहानियों का सृजन होता है। भारत में प्रेमचन्द, अमृता प्रीतम, मन्नू भंडारी, अज्ञेय, दिनकर, सूरदास, कबीर, तुलसीदास जैसे कई सृजनकारों ने बहुत कुछ सृजित किया। अब भी कहानियाँ, कवितायेँ, नाटक लिखे जाते हैं पर उनने सृजित नही किया जाता बल्कि उनका उत्पादन होता है।
 आज बाज़ारवाद इस कदर हावी हो गया है कि एक नए तरह की सामग्री का सृजन हो रहा है पर क्या इसे सृजन कहेंगे? नही यह उत्पादन की श्रेणी में आएगा क्योंकि हम बाजार के लिए सामग्री का उत्पादन कर रहे हैं। शायद इसीलिए आज का साहित्य पुराने साहित्य की तुलना में 'यूज़ एन्ड थ्रो' बनके रह गया है। कबीर के समय के साहित्य की बात करें या दिनकर के, इन समयों में किसी प्रकार का कोई बाजार हावी नहीं था क्योंकि कोई धन अर्जन के लाभ से साहित्य की रचना नही करता था। पर अब साहित्य कैसा भी हो बाजार में बिकने वाला हो। पर एक बड़ा सवाल है कि क्या यह सर्जनात्मकता को अंत की ओर तो नही धकेल रहा? और अगर ऐसा है तो शायद साहित्य एक उत्पादन बनकर रह जायेगा।

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