Friday 13 July 2018

चरमराती भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था

मानव जीवन की सबसे अमूल्य वस्तु अगर कुछ है तो वो है उसका स्वास्थ। वैसे भी कहा जाता है ‘तन चंगा तो मन चंगा’।लेकिन जिस तरह से भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा रही है। लोग तरह-तरह की बिमारियों का शिकार हो रहें हैं। स्वास्थ्य संसथानों की हालत दिन ब दिन बिगड़ती जा रही है।डॉक्टरों की संख्या में नीरंतर कमी होती जा रही है।जिससे ऐसा प्रतीत हो रहा है। मानों भारतीय स्वास्थ्य व्यव्स्था भी राजनीति की भेट चढ़ चुकी है। 
हालही में आई सेंट्रल ब्यूरो ऑफ हेल्थ इंटेलिजेंस की रिपोर्ट भी इसी तरफ़ इशारा कर रही है।
जिसमें कहा जा रहा है कि भारत में तकरीबन 5,00,000 डॉक्टरों की जरुरत है।अगर हम इसे और विस्तार से समझे तो प्रति 1000 आबादी पर 1डॉक्टर होना चाहिए।लेकिन यहां स्थिति कुछ अलग ही नज़र आ रही है।अगर हम आंकड़ों पर नज़र ड़ालें तोबिहार में28,391 की आबादी पर डॉक्टर है,यूपी में 19,962 की आबादी पर डॉक्टर है,मध्यप्रदेश में16,996 की आबादी पर 1डॉक्टर है और झारखंड़ में 18,518 की आबादी पर डॉक्टर है। इन आंकड़ों सा ये साफ़ जाहिर होता है स्तिथि कितनी दयनीय है।
इसके अलावा अस्पतालों में होने वाले खर्चों में दिन प्रतिदिन वृध्दि होती जा रही है। हालात इतने खराब हैं कि एक सामान्य या गरीब परिवार की जितनी तीन माह की तनख़्वाह होती है। उतना ही अस्पताल में एक बार भर्ती होने पर खर्च हो जाता है।उदाहरण के तौर पर हम इन राज्यों के अस्पतालों में भर्ती होने पर औसतन होने वाले खर्चों को देख सकते हैं।असम52368,उत्तर प्रदेश 13931, उत्तराखंड33402,बिहार 28058,झारखंड़ 16174और दिल्ली में ये कुल 7737 हैं।
जबकि 2015 से लेकर 2017 तक स्वास्थ्य संबंधी बजट में वृध्दि हुई है।जहां2015 में बजट 1112 करोड़ रू था,2016 में 1397 करोड़ रू थावहीं2017 में इसे बढ़ा कर 1657 कर दिया गया। लेकिन इसके बावजूद न तो स्वास्थ्य संस्थानों की हालत सुधरी और न ही डॉक्टरों की संख्या में कोई वृध्दि हुई है। सवाल यह उठता है कि आखिर ये पैसे जा कहाँ रहें हैं।
आपको याद होगा की मोदी सरकार ने2014 में नए एम्स,2015 में नए एम्स और 2017 में 2 एम्स खोलने का एलान किया था।इसके लिए 148 अरब रुपये का अलग से प्रावधान भी किया गया था।मगर अभी तक सरकार ने अरब रु ही दिेेए हैं।
1956 में पहला एमस बना था।उसके बाद वाजपेयी सरकार ने 2003 में एमस बनानेका एलान किया था।तकरिबन 9साल लगे और 2012 में ये एमस बनकर तैयार हुए।उनकी हालत भी दयनीय हैं।छह एमस में 60 प्रतिशत फैकल्टी नहीं है।80प्रतिशत नॉन फैकल्टी पद खाली हैं।
इस बीच एमस के लिए 1300 पदों का विज्ञापन निकला।इसमें भी मात्र 300 चुने गए और उसमें भी 200 ने ही जॉइन किया।
इन सभी बातों से यह साफ जाहिर होता है कि स्थिति कितनी भयावह है।एक तरह से देखा जाए तो यह जनता के साथ मज़ाक ही हो रहा है।
उपर से जनता इन सब धांधलियों पर कोई सवाल न करे इसलिेए उनके हाथो में 
'आयुष्मान भारत बिमा'नाम का लोलीपोप पकड़ा दिया गया है।अब सवाल यह उठता है। जब डॉक्टर ही नहीं होंगे,अस्पताल ही नहाीं होंगे,तब लोग इन बिमाओ का करेंगे किया? अब ये तो जनता को तय करना है कि कब तक वो इन झूठे जुमलों और वादों में फसती रहेगी।




सौरभ मिश्रा

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